सोमवार, 11 अप्रैल 2011

तेरी याद का ले के आसरा ,मैं कहाँ-कहाँ से गुज़र गया,
उसे क्या सुनाता मैं दास्ताँ, वो तो आईना देख के डर गया।
मेरे ज़ेहन में कोई ख्‍़वाब था
उसे देखना भी गुनाह था
वो बिखर गया मेरे सामने
सारा गुनाह मेरे सर गया।

मेरे ग़म का दरिया अथाह है
फ़क़त हौसले से निबाह है
जो चला था साथ निबाहने
वो तो रास्ते में उतर गया।

मुझे स्याहियों में न पाओगे
मैं मिलूंगा लफ्‍़ज़ों की धूप में
मुझे रोशनी की है जुस्तज़ू
मैं किरन-किरन में बिखर गया।

उसे क्या सुनाता मैं दास्ताँ, वो तो आईना देख के डर गया।
o-कन्हैयालाल नंदन


3 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

वाह!! ब्लॉग-जगत में आपका स्वागत है. नंदन जी से शुरु हुई ये यात्रा अनंत हो. शुभकामनाएं.

BrijmohanShrivastava ने कहा…

नंदन जी की कविता पढवाने बहुत बहुत धन्यबाद

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

ब्लॉग जगत में आप का हार्दिक स्वागत है
बढ़िया रचनाओं को पढ़वाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद !
हमारी शुभकामनाएं आप के साथ हैं